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डोनाल्ड ट्रंप के आधिकारिक तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति बनने से पहले भी कई चीजें उनके हिसाब से चल रही थीं. उदाहरण के लिए, कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को अंततः पद छोड़ना पड़ा, या हमास-इज़राइल मोर्चे पर शांति दिखाई देने लगी। इस बीच ग्रीनलैंड भी सुर्खियों में है. आर्कटिक और उत्तरी अटलांटिक महासागर के बीच स्थित इस द्वीपीय देश को ट्रंप अमेरिका का नया राज्य बनाना चाहते हैं. वैसे, अमेरिका यहां पहले से ही एक सीक्रेट प्रोजेक्ट चला चुका है. उनका सैन्य अड्डा बर्फ की सुरंगों से बना था, जिसका निशाना तत्कालीन सोवियत संघ था।
अब इस पर चर्चा क्यों हो रही है?
कुछ साल पहले नासा के वैज्ञानिकों को एक चौंकाने वाली जानकारी मिली थी. हुआ यूं कि नासा गल्फस्ट्रीम 3 को बर्फीले इलाकों के सर्वे के दौरान ग्रीनलैंड में कुछ अलग ही नजर आया. जांच के दौरान यह समझ में आया कि बर्फ की परतों के नीचे एक अमेरिकी सैन्य अड्डा स्थित था। कैंप सेंचुरी नाम का यह कैंप बर्फ के अंदर सुरंग बनाकर तैयार किया गया था। अमेरिका का इरादा बर्फ के अंदर करीब चार हजार किलोमीटर लंबी सुरंग बनाने का था, जिसका मुंह सोवियत संघ के सामने होगा.
अंडरग्राउंड कॉलोनी में रहने की सारी व्यवस्था
योजना के अनुसार काम शुरू हुआ, जिसे कैंप सेंचुरी नाम मिला। यह एक पूरी कॉलोनी थी, जो भूमिगत थी. इसमें चर्च, दुकानें और घर थे, जहां सैकड़ों सैनिक एक साथ रह सकते थे। द पोलिटिको की रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका ने इसे बनाने के लिए उपकरण भेजना शुरू कर दिया. पिटफिक स्पेस बेस आखिरी पड़ाव था, जिसके बाद सामान स्लेज से भेजा जा रहा था। यह अमेरिका की बहुत महत्वाकांक्षी योजना थी। योजना के मुताबिक, करीब छह सौ परमाणु मिसाइलें बर्फ के नीचे छिपी हो सकती हैं।
काम क्यों रुका?
कुछ समय तक भूमिगत बस्ती बनाने और उसमें परमाणु परियोजना तैयार करने का काम चलता रहा लेकिन फिर असली समस्या शुरू हुई. बर्फीली सुरंगें पिघलने लगीं। कुछ स्थानों पर बर्फ धंसने से काफी उपकरण दब गए। मौसम तो प्रतिकूल था ही, अमेरिका से ग्रीनलैंड तक उपकरण भेजने में भी काफी पैसा खर्च हो रहा था. कई बार तो ऐसा भी हुआ कि बर्फ का कोई बड़ा टुकड़ा अचानक हिलने लगा. विपरीत परिस्थितियों के कारण वर्ष 1966 तक कैंप सेंचुरी खाली हो गई। सभी सैनिक और इंजीनियर वहां से चले गए थे। पीछे छूट गए थे परमाणु मलबा, ईंधन और हथियार।
फिर कैसे खुला राज?
प्रोजेक्ट का शटर बंद हो चुका था. अमेरिकी सेना का मानना था कि बर्फीले तूफान पूरे कैंप को अपने आप नष्ट कर देंगे, या फिर नष्ट न भी कर पाएं तो भी यह राज नीचे ही दबा रहेगा। साठ के दशक में ग्लोबल वार्मिंग की अवधारणा उतनी लोकप्रिय नहीं थी। लेकिन बर्फ पिघलने लगी और अमेरिका द्वारा सावधानीपूर्वक दबाया गया यह रहस्य न केवल ग्रीनलैंड बल्कि पूरी दुनिया के सामने आ गया। ऐसा नब्बे के दशक में हुआ होगा. यह जानकारी सामने आने के बाद ही अमेरिका ने कैंप सेंचुरी के अस्तित्व पर सहमति जताई और वादा किया कि वह ग्रीनलैंड को खतरे से बाहर निकालने के लिए डेनमार्क के साथ मिलकर काम करेगा.
जोखिम क्या है?
2003 और 2010 के बीच, ग्रीनलैंड की बर्फ पूरी 20वीं सदी की तुलना में तेज़ी से पिघली। इसके बाद यह आशंका गहराने लगी कि अगर बर्फ इसी गति से पिघलती रही तो पीछे बचा परमाणु कचरा भी तापमान के संपर्क में आ जाएगा। इसका परिणाम काफी खतरनाक हो सकता है. पिछले साल संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ये सिर्फ 2 से 3 डिग्री सेल्सियस की बात है और कैंप सेंचुरी का मलबा बर्फ के ऊपर होगा. यदि वार्मिंग इसी दर से जारी रही तो यह अगले 7 दशकों के भीतर या शायद उससे भी पहले हो सकता है।
1979 में स्वायत्तता प्राप्त करने के बाद से ग्रीनलैंड ने इस मुद्दे पर कई बार चर्चा की है, लेकिन अब तक कोई निर्णय नहीं लिया गया है। वादों के बावजूद अमेरिका ने रेडियोधर्मी कचरे पर कोई कार्रवाई नहीं की।
क्या बर्फ की ड्रिलिंग संभव है?
कैंप सेंचुरी में अध्ययन कर चुके वैज्ञानिक विलियम कोलगन का कहना है कि ग्रीनलैंड पर काम करने का एक खतरा यह है कि कोई नहीं जानता कि बर्फ के नीचे कितनी चीजें दबी हैं और वे कितनी खतरनाक हैं। ऐसे में अगर ड्रिलिंग की गई तो भी खतरा ज्यादा हो सकता है. कोलगन की टीम ने कैंप सेंचुरी के अंदर भी खुदाई करने की कोशिश की लेकिन बर्फ की हलचल के कारण उसे रोकना पड़ा।
अधिकांश रेडियोधर्मी कचरा 30 से 50 वर्षों के भीतर अपनी आधी क्षमता खो देता है, लेकिन यहां मामला अलग है। इसका बर्फ के नीचे दबा होना इसे और भी खतरनाक बना देता है. जबकि प्लूटोनियम जैसे कुछ तत्वों का जीवन हजारों वर्षों का होता है। चूंकि ये बर्फ के अंदर संरक्षित हैं, तो जाहिर तौर पर इन्हें ड्रिल करने से नई मुश्किलें आ सकती हैं।
ऐसे में अगर ट्रंप ग्रीनलैंड लेना चाहते हैं तो शायद इसके पीछे एक वजह यह है कि वह उन सुरंगों को पुनर्जीवित करना चाहते हैं, जहां पहले से ही अमेरिका का भारी पैसा लगा हुआ है। या फिर वे यह जांच करना चाहते होंगे कि दबे हुए रेडियोधर्मी कचरे से उनके अपने देश को क्या खतरा हो सकता है, या क्या वे अंतरराष्ट्रीय मंच पर इससे घिरे रह सकते हैं।